अखिलेश-मायावती के गठबंधन के बावजूद, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बरकरार

उत्तर प्रदेश: लोकसभा चुनाव की बढ़ती सरगर्मी के बीच सबकी निगाहें उत्तर प्रदेश पर हैं। करीब 23 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में लोकसभा की 80 सीटें हैं। जाहिर तौर पर यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा और विपक्षी महागठबंधन, दोनों के लिए ‘जय या क्षय’ तय करने वाला राज्य है। भाजपा से बढ़ रही नाराजगी के बावजूद राज्य में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कायम है। जबकि चुनाव पूर्ण गठबंधन से बसपा-सपा खासा उत्साहित हैं। प्रियंका गांधी के राजनीति में औपचारिक रूप से आने के बाद कांग्रेस भी काफी उत्साह से भरी है। हालांकि फिलहाल कोई भी भविष्यवाणी करना कठिन होगा।

2014 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 80 संसदीय सीटों में से 71 पर जीत हासिल की थी। जबकि उसके गठबंधन सहयोगी अपना दल को दो अन्य सीटें मिली थीं। बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को जितनी सीटें हासिल हुई थीं उसका 25 फीसदी उत्तर प्रदेश से ही था। लेकिन 2019 के आम चुनाव में भाजपा के सामने उत्तर प्रदेश में अपनी पिछली कामयाबी दोहराने की बड़ी चुनौती होगी। अगर वह अपना पिछला आंकड़ा हासिल नहीं करेगी तो उसे बहुमत हासिल करने के लिए संघर्ष करना होगा। 

भाजपा को उम्मीद है कि वह पूर्वोत्तर समेत उन स्थानों पर नई सीटें जीतेगी, जहां वह हाल में एक खिलाड़ी के रूप में उभरी है। इसके बावजूद अगर उत्तर प्रदेश में सीटों का नुकसान होता है तो उसकी भरपाई करना असंभव भले न हो, मुश्किल होगा। राज्य में बसपा और सपा ने चुनावी गठबंधन बना लिया है, जो बीते दो दशक से राज्य की सत्ता के लिए आपस में तीखा संघर्ष करती हैं। भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में उन दोनों को हरा दिया था, लेकिन मार्च 2018 में बसपा और सपा की करीबी ने रंग दिखाया, जब उन्होंने उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर की संसदीय सीटें भाजपा से छीन लीं।

एकतरफ भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने इन चुनावों को पानीपत की तीसरी लड़ाई जैसा बताया तो दूसरी तरफ सपा और बसपा के बीच रिश्तों में दशकों पुराने खटास की खाई खत्म होती नजर आई। यह गठबंधन यूपी की सियासत में विपरीत पाटों पर खड़े दो ऐसे दलों का गठबंधन है, इसके पहले 1990 के दशक में ही यह संयोग बना था जब यूपी की राजनीति में सपा-बसपा एकदूसरे के करीब आए थे। लेकिन लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड ने इन दोनों दलों के बीच खाई इतनी चौड़ी कर दी कि इसे भर पाना असंभव नजर आने लगा था।

2019 में बसपा और सपा 38-38 सीट पर चुनाव लड़ेंगी। उन्होंने दो सीट कांग्रेस के लिए और दो सीट राष्ट्रीय लोकदल के लिए छोड़ी है। हालांकि अभी कोई भविष्यवाणी करना कठिन है, जानकारों का अनुमान है कि बसपा-सपा महागठबंधन भाजपा की आधी सीटें झटक सकता है। कांग्रेस ने संकेत दिए हैं कि वह उत्तर प्रदेश में अपने बूते चुनाव लड़ेगी। उसने प्रियंका गांधी को महसचिव बनाकर अपने इरादे और स्पष्ट कर दिए हैं। प्रियंका का आना निश्चय ही यह एक अहम कारक रहेगा। तीसरी चीज यह है कि भाजपा से नाराजगी के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी कायम है।

इस बार चुनाव में तीन मसले अहम होंगे : मतदाताओं का रुझान, हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण और अर्थव्यवस्था को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में बेचैनी। 2014 में भाजपा ने यह समीकरण बखूबी साधा था। 

उत्साह बढ़ाए रखने की जरूरत
2019 में भाजपा की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वह अपने समर्थकों को प्रेरित कर पाती है या नहीं और कितने मतदाता मतदान केंद्र तक पहुंचते हैं। देखा गया है कि जिन क्षेत्रों में अधिक मतदान हुए, खासकर महिला मतदाताएं वोट देने निकलीं वहां भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा। युवा मतदाताओं से भी उसे काफी मदद मिली।

ग्रामीणों की बदहाली 
उत्तर प्रदेश की 78 फीसदी आबादी ग्रामीण है। यह भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है। जानकारों की मानें तो यह किसानों की नाराजगी ही थी जिसके कारण राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता से भाजपा को बेदखल होना पड़ा। यह मसला उत्तर प्रदेश में भी अहम है।

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